धर्म

1 जुलाई से शुरू होगी भगवान जगन्नाथ यात्रा

ओडिशा के पूरी शहर में स्थित जगन्नाथ मंदिर में विष्णु जी के आठवें अवतार श्री कृष्ण की पूजा होती है। यहां भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजमान है। चारों धामों में से जगन्नाथ धाम भी एक है। हर साल आषाढ़ महीने में भगवान की रथ यात्रा बहुत ही धूम धाम से निकलती है जिसमें हजारों लोग शामिल होते हैं। इस यात्रा में भगवान जगन्नाथ के साथ उनके भाई बहन भी होते हैं। तीनों अलग अलग रथ पर सवार होकर अपनी मौसी के घर जाते हैं।

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को हर साल यह अलौकिक रथ यात्रा निकलती है। भगवान की यह रथ यात्रा 1 जुलाई से शुरू होकर 12 जुलाई को समाप्त होगी। अपनी इस यात्रा में जगन्नाथ जी मंदिर के गर्भ गृह से निकलकर प्रसिद्ध गुंडिचा माता के मंदिर तक जाते हैं और वहां पूरे सात दिन विश्राम करते हैं।

क्यों निकलती है यह रथ यात्रा?
कई धार्मिक कथाओं के अनुसार एक बार जगन्नाथ जी की बहन सुभद्रा ने घूमने की इच्छा जताई तब भगवान उन्हें रथ पर बैठाकर घुमाने ले गए। पूरा नगर घूमने के बाद वे सुभद्रा जी को उनकी मौसी के घर गुंडिचा भी ले गए थे और वहां वे पूरे साथ दिनों तक रुके थे। तब से यह परंपरा शुरू हुई थी।

राजा इंद्रद्युम्न ने बनवाया जगन्नाथ मंदिर
मालवा के राजा इंद्रद्युम्न भगवान कृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे। राजा बड़े बड़े यज्ञ करवाते रहते थे। एक बार सपने में श्री कृष्ण ने राजा को दर्शन दिया और कहा कि नीलांचल पर्वत पर उनकी नीले रंग की मूर्ति को प्राप्त कर एक विशाल मंदिर बनवाया जाए और उस मूर्ति को उसमें स्थापित किया जाए। कहते हैं वह नीले रंग की मूर्ति कुछ और नहीं बल्कि भगवान कृष्ण का दिल था जिसे उनकी मृत्यु के बाद उनके कहने पर अर्जुन ने समुद्र में बहा दिया था। बाद में जो बहकर पूरी आ गया था।

रथ में धातु का उपयोग नहीं होता
इस यात्रा में कुल 3 रथ निकलते हैं। सबसे आगे बलभद्र का रथ, उनके पीछे बहन सुभद्रा होती हैं और सबसे पीछे जगन्नाथ जी का रथ होता है। यह तीनों रथ लकड़ी के बने होते हैं और इनमें धातु का उपयोग नहीं होता है। रथ बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ियां पवित्र पेड़ों की होती है। लकड़ियों को चुनने काम बसंत पंचमी से शुरू हो जाती है और रथ अक्षय तृतीया से बनाना शुरू कर दिया जाता है।

रहस्यमयी मूर्तियां
जगन्नाथ मंदिर में विराजमान भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियों के हाथ और पैर नहीं है। पौराणिक धर्म ग्रंथों के अनुसार इन मूर्तियों को बनाने का काम भगवान विश्वकर्मा को दिया गया था, लेकिन उनकी शर्त थी की जब वे मूर्ति बना रहे हों तो कोई भी उन्हें टोके न और न ही उनके कार्य में बाधा डालें। कहते हैं कि विश्वकर्मा जी दरवाजा बंद करके मूर्तियां बना रहे थे, तभी राजा ने दरवाजा खोल दिया और मूर्तियां अधूरी ही रह गई। ऐसा भी कहा जाता है कि जगन्नाथ जी की मूर्तियां श्री कृष्ण की अस्थियों से बनी है।

100 यज्ञ के बराबर फल
ऐसी मान्यता है कि जो भक्त इस यात्रा में शामिल होकर रथ को खींचता है उसे 100 यज्ञों के बराबर का फल मिलता है। इसके अलावा उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। आषाढ़ के महीने में पुरी तीर्थ में स्नान करने से सभी तीर्थों के दर्शन का पुण्य मिलता है।